Monday, March 29, 2010

आसमानी पत्थर की जहाँगीरी तलवार

३० फर्वर्दीन १०३० फारसी (१९ मार्च 1621)



सुवह का बख्त था। जलंधर के परगने के एक गाँव में किसान अपने हल बैल लिए खेतों पर काम करने के लिए जा रहे थे कि अचानक पूर्व दिशा से एक तेज रोशनी की लकीर उन्हें अपनी ओर आती हुई दिखी। उसे देखकर लोग डर कर कांपने लगे। जब तक लोग कुछ समझ पाते वह रोशनी एक जोरदार धमाके के साथ पास के एक खेत में जा गिरी। एक क्षण के लिए लोगों के होश उड़ गए, जब उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने एक आदमी को इस घटना की सूचना देने के लिए परगने के आमिल मुहम्मद सैद के पास भेजा। घटना की गंभीरता को देखते हुए आमिल तुरंत गाँव की ओर चल दियावहां जाकर उसने देखा कि धरती दश-बारह गज के घेरे में इतनी बुरी तरह जल गई थी कि घास का एक भी तिनका तक नहीं बचा। धरती अब भी गर्म थी, उसने गहराई तक खोदने का हुक्म दिया। बहुत गहराई तक खोदने पर उन्हें एक गर्म लोहे का टुकड़ा मिला। उस लोहे के टुकड़े को वह अपने घर ले आया। घर आकर उसने उसे एक थैले में रखा औरसील लगाकर जहांगीर के पास आगरा भेज दिया।



जहांगीर ने बड़ी उत्सुकता के साथ उस आसमानी लोहे को देखा और उसे अपने सामने तुलवाया। उसका बजन १६० तोले था। उसने उस्ताद दौउद को इससे एक तलवार, एक खंजर और एक चाक़ू बनाने का हुक्म दिया। लेकिन जब वह लौट कर आया तो उसने बताया की वह भट्टी की आंच सहन नहीं कर पाया और तुकडे तुकडे हो गया। तब जहांगीर ने हुक्म दिया की अगर एसी बात है तो इसमें साधारण लोहा मिलाओ। जहांगीर के आदेशानुसार तीन हिस्सा आसमानी लोहा तथा एक हिस्सा साधारण लोहा मिला कर दो तलवारें, एक खंजर और एक चाक़ू बनाया गया। इन पर अन्य लोहे की पालिश कर जहांगीर के सामने पेश किया।









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